तुम्हारे रंग में...!! भाग - 2
तुम सिलीगुड़ी से कलकत्ता वन विभाग में अपने काम से आते थे। और अपना काम आसानी से पूरा हो जाये, इसलिए तुमने उन दिनों मुझे अपना साथी बनाया था। सिर्फ़ अपने मतलब के लिए। इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब सात महीने बाद मुझे तुम्हारा पत्र मिला, जिसमे साफ़ साफ़ तुमने मेरे शहर को अंजान शहर और मुझे अजनबी कहा था। जबकि उस वक़्त मेरे दिल के लिए तुमसे अधिक अपना कोई नहीं था। मैं तो तुम्हारे इंतजार में थी कि तुम आओगे तो इस बार तुम्हें इजहारे मुहब्बत करूँगी। पर मुझे तुम्हारी शादी की ख़बर मिली, तुमने मुझे इतना भी अपना नहीं समझा की अपनी शादी में मुझे बुला पाओ।
ख़ैर गुज़री बातों को याद कर कोई फ़ायदा नहीं। मैं आज की बात करती हूं। आज जब तुम्हें मेरे शहर से गये पूरे तीन साल बीत गए है। और अचानक आज मैंने तुम्हें कलकत्ते के आर.जी.कर हॉस्पिटल में एडमिड पाया। मैं एक पल के तुम्हें बिल्कुल पहचान नहीं पायी। पर जब मेरी नज़र तुम्हारे आंखों पर टिकी तब मुझे लगा हो न हो ये तुम ही हो। आख़िर मैं कैसे उन आँखों को भूल सकती हूं जिसपे मैं मर मिटी थी।
मैं बिना किसी झिझक सीधा तुम्हरे पास गयी। तुम्हारी सूरत बता रही थी कि तुम बिल्कुल ठीक नहीं हो। बिल्कुल बदल हो गए हो तुम। कितने दुबले,कितने शिथिल, कितने शांत, और कितने लाचार। आख़िर ऐसा क्यों हुआ। मैं तुमसे पूछना चाहती थी पर मेरे शब्द फंस गए थे गले के भीतर ही। मैं बस फ़िर एक बार तुम्हें अपने शहर में महसूस कर रही थी। मेरे आँसू खुद ब खुद बहने लगे पता नहीं क्यों? पर मुझे तुम पर बड़ा स्नेह हो रहा था, सच कहूं मुझे तुम्हारी चिंता हो रही थी।
मैं सबकुछ जान ना चाहती थी की तुमको आख़िर हुआ क्या है? पर तुम भी तो कुछ बोल पाने से असमर्थ थे। आख़िर मैंने नर्स से पूछा इन जनाब को क्या हुआ है। और इनके साथ कौन है? तब उन्होंने जो बताया वो सुनकर मेरे रौंगटे खड़े हो गए। वो बोली कि तीन दिनों पहले तुम्हें कुछ अज्ञात लोगों के द्वारा यहां छोड़ा गया। उसके बाद से तुम अकेले हो। तुम्हारे साथ कोई नहीं।
पर ये कैसे हो सकता है। अकेला तो तुम मुझे छोड़ गए थे। तुम्हें तो तुम्हारे शहर में जीवनसाथी मिल गयी थी। फ़िर इस बुरे वक़्त में तुम अकेले कैसे हो गए। लेकिन एक बात सच है तुमने वाक़ई दिल से मुझे अजनबी ही माना था। तभी तो कलकत्ता आकर भी तुमने मुझे बताया तक नहीं.... वैसे तुम तो अभी इस लायक़ भी नहीं थे। पर वो तो मेरी किस्मत है जो बार बार मुझे तुमसे मिलवा देती है।
ख़ैर छोड़ो सवाल तो बहुत सारे है पर अभी तुम्हें ठीक भी तो करना होगा। सुनो....एक और बार तुम्हारा मेरे शहर में स्वागत है।
तुम मुझे पहचान तो पा रहे थे। पर पता नहीं किस अपराधबोध में तुम्हारी नजरें हमेशा नीचे की ओर गड़ी रहती।
धीरे धीरे तुम ठीक हुए। अब तुम बोलने लगे हो आहिस्ता आहिस्ता। तुम्हारे जिस्म के घाव अब भर चुके थे। आज हॉस्पिटल वालों ने तुम्हारी छुट्टी भी कर दी। मैं तुम्हें अपने साथ मेरे घर ले आयी। तुमने इनकार भी नहीं किया शायद तुम्हरे पास कोई और रास्ता भी नहीं था। तुम मेरे घर आ चुके थे। मैं अब मेरे घर के चार दीवारों में,अपने आंगन में तुम्हारा होना महसूस कर रही थी। मैं एक बार और तुम्हारे रंग में खो रही थी। पर बाबा के कंधों ने संभाला मुझे। वे जानते थे मेरा हाल ऐ दिल।
जब पूरी तरह से तुमने बोलना शुरू किया तो अपनी कहानी बताई। कुछ इस तरह।।।। सरकारी नौकरी लगने के बाद मैं विवाह करने के लिए उत्सुक हो गया। फ़िर आनन फानन में मेरी शादी उसी शहर यानी सिलीगुड़ी की एक लड़की से हो गयी। विवाह के बाद के चंद दिन काफ़ी खूबसूरत रहे। पर फ़िर मैंने धीरे धीरे महसूस किया कि उस स्त्री से विवाह के बाद मैं मेरे अपनो से दूर होता जा रहा हूँ। मेरे माता पिता फ़िर भाई बहन फ़िर दोस्त यार और फ़िर रिश्तेदार। सभी से उसने मुँह फेर लिया और मुझे भी ऐसा करने के लिए बाध्य किया। उसने मेरी जिंदगी बस उस के इर्द गिर्द ही सीमित कर दी। शुरू शुरू में मुझे लगा कि शायद मैं उस से प्रेम करता हूँ। पर नहीं असलियत ये है कि मैं उस से डरता हूँ। आज भी डरता हूँ। उसने जब सबको मेरी जिंदगी से निकाल फेंका तब उसे बड़ा सुकून मिला। और इसी बीच वो गर्भवती हुई। मैं खुश था कि मैं बाप बन ने वाला था।
10 महीने बाद मेरी जिंदगी में मेरा बेटा आया। उसकी आँखें, उसकी मुस्कनन, और उसके बचपन में मैं खो गया। पर उस औरत को ये भी रास न आया। वो चाहती मैं उसके अलावा किसी से प्रेम न करूँ, अपने बेटे से भी नहीं। पर जीते जी ये मुझसे नहीं हो सकता। कोशिश तो बहुत की उसने पर जब बाप बेटे को मिलने से न रोक पायी तो एक दिन वो मेरे बेटे को लेकर अपने माँ के घर चली गयी।
उसके पिता सिलीगुड़ी के जाने माने शख्सियत है। मैं जब अपने ससुराल गया और बेटे से मिलने की ख्वाहिश बताई, तो उसके पिता और उसके भाइयों ने मिलकर मुझे काफ़ी मारा। मैं वापस घर लौट आया। पर मैं बार बार बेटे के मोह में वहां जाता और बार बार वे मुझे मारकर वापस भेज देते।
मेरे साथ कोई अपना नहीं था क्योंकि उसी औरत के ख़ौफ में मैंने मेरे सारे अपनो को खुद से दूर कर दिया था। अब किस मुँह से जाता उनके पास। फ़िर कुछ दिनों पहले मैं चोरी से उनके घर के अंदर चला गया जहां जहां मेरा बेटा अकेला एक कमरे में सोया था। मेरे स्पर्श से ही वो जाग गया और पहली बार उसने मुझे पापा कह कर पुकारा। और मेरे गले से लग कर रोने लगा। वो मुझे समझा रहा था कि उस से बिछड़ के सिर्फ़ मैं ही नहीं वो भी तड़पता है।
मैं इस वक़्त अपने जज्बातों को रोक नहीं पाया और उसे सीने से भींच रोने लगा। मेरे रोने के आवाज़ से ही कमरे में दो लोग घुस आये और मुझे वापस जंजीरों से बांधकर 2 दिनों तक लगातार पिट ते रहे तबतक जबतक की मैं अधमरा न हो गया। उसके बाद पता नहीं कब वे लोग मुझे कलकत्ता ले आये और उस सरकारी अस्पताल में मुझे भर्ती करवा दिया।
होश में आने के बाद मैंने दो चीजें सोची की आख़िर वो औरत जो मेरी पत्नी है वो असल में चाहती क्या है। उसने न मुझसे प्रेम किया न मेरे घरवालों से न मेरे बच्चे से जो कि उसका भी है। दूसरी चीज़ जब मुझे पता चला कि मैं कलकत्ते के किसी हॉस्पिटल में हूँ तो सबसे पहले मुझे तुम्हारी याद आयी। और वो सारे पल याद आये जो मैंने तुम्हारे साथ बिताए थे। कितने शानदार लम्हें थे वो। उस वक़्त मैं भी चाहता था कि मैं उम्र भर तुम्हारे साथ ही रहूं। पर सिलीगुड़ी वापस जाने के बाद जब मुझे सरकारी नौकरी मिली और उसके साथ ही दहेज़ की अधिक मात्रा के साथ उस स्त्री का विवाह प्रस्ताव मिला। उस वक़्त मेरा लालच मुझपर हावी हो गया। और मैंने बस पैसे को चुना। पर उस औरत की सच्चाई जानने के बाद मुझे बहुत याद आयी तुम्हारी और तुम्हारे इस शहर की जिसने आज मुझे जिन्दगि दी। और तुमने सहारा। मैं ग़लत था और उस ग़लती की सज़ा मुझे मिल रही हैं। मैंने तुम्हारा दिल तोड़ा। तुम्हें अजनबी कहा तुम्हारे इस बड़े दिल वाले शहर को अनजान कहा। मैंने गलत कहा। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। मैं जानता था तुम्हारे हृदय में छुपे अहसास को। पर मैंने नजरअंदाज किया।
मैं भींग चुकी थी तुम्हारी बातों से। मेरा हृदय तुम्हें माफ़ कर देने के लिए बाध्य हो चुका था। मैं जानती थी अब तुम इस शहर को कभी अजनबी नहीं कह पाओगे। मैं खुश थी कि तुमने उस शहर को अपना कहा जीसने ख़ुद को तुम्हारे रंग में रंग लिया था। पूरी तरह।।
तुम वापस लौट गए इस वादें के साथ कि तुम अपने अंश को लेकर वापस कलकत्ता आ जाओगे। और पूरी जिंदगी यही बिताओगे।
मुझे नहीं पता तुम आओगे या नहीं। पर तुम्हारा इस तरह लाचार होकर मेरे शहर में आना और अपना नया रंग देकर जाना मुझे सुकून दे रहा था। मैं बस तुम्हारे नए रंग को और तुम्हारी लाचारगी और तुम्हारा अकेलापन महसूस कर रही थी। हालांकि मैंने ऐसा चाहा नहीं कभी।।।।।
Apeksha Mittal
28-May-2021 04:03 PM
बहुत अच्छी कहानी लगी , मेंम ,
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